अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन समारोह पर हो रही चर्चाओं ने दो बहुत ही बुनियादी सवालों को लगभग नजरअंदाज कर दिया है। पहला, क्या किसी घोषित सेकुलरवादी राज्य का एक विशुद्ध धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेना उचित है? दूसरा, धर्म और राज्य सत्ता के इस समावेश का आम लोगों (विशेषकर धार्मिक संप्रदायों) के विश्वासों और संवेदनाओं पर क्या असर होता है?
सेकुलर से तौबा : ये दो सवाल भारत में सेकुलरवाद के भविष्य से संबंधित हैं, खासकर तब जबकि सेकुलरवाद आज की चुनावी राजनीति से लगभग गायब हो चुका है। BJP पहले ही घोषणा कर चुकी है कि भारतीय राजनीति में सेकुलरवाद की कोई जगह नहीं है। विपक्ष ने भी चुपचाप इस विवादास्पद दावे को स्वीकार कर लिया है।