वो 2016 का नवम्बर था, तब नोटबंदी का मसला था और चंद महीनों बाद यूपी में चुनाव होने थे। सारे हो हल्ला और हंगामे के बावजूद नरेंद्र मोदी बड़ी आसानी से जनता को यह समझाने में कामयाब हुए थे कि यह (नोटबंदी) उनका एक युगांतरकारी (दूसरा युग लाने वाला) फैसला है। यह भी सही है कि तमाम दुश्वारियां झेलने, तमाम ‘असहमतियों’ के बावजूद जनता ने उस फैसले को ‘हाथों हाथ’ लिया था। इस ‘सहमति’ का एक नतीजा मार्च 2017 में हुए यूपी चुनाव के रूप में सामने आया था। भाजपा ने वहां सबका सूपड़ा साफ कर दिया था।
ये सितम्बर 2020 है, अब किसान का मुद्दा सामने है। हिंदी और हरित पट्टी के दूसरे सबसे बड़े राज्य बिहार में चुनाव होने हैं। जल्द तारीखों का ऐलान होना है। ऐसे में सवाल सीधा और स्वाभाविक है कि क्या उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में नोटबंदी की तरह, किसानों का यह मुद्दा बिहार चुनाव में अपनी कोई अलग भूमिका निभा पाएगा? बिहार में जैसा चुनावी माहौल बनता जा रहा है, उसमें बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि अगले 48 घंटों में विपक्ष इस मामले को किस तरह और कितना तूल दे पाता है।