दक्षिणापथ, नगपुरा/दुर्ग। ” क्रोध आता नहीं है। क्रोध किया जाता है। ऐसा कहना दंभ है। क्रोध कर रहा हूँ, यह सोच सही है। अक्सर जो हमारे निकट हैं उन पर हम ज्यादा गुस्सा करते हैं। जो हमें प्रेम करता है, जो हमारा ख्याल रखता है, हम उसी पर आक्रमण करते हैं। जब आप गुस्सा करते हैं,तो सामने वाले को द्वेष का आलंबन बना लेते हैं। जो द्वेष का आलंबन बनाते रहता है, वह साधना नहीं कर सकता। “उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला में श्री आचारांग सूत्र की व्याख्या करते हुए पूज्य मुनि श्री प्रशमरति विजय जी (देवर्धि साहेब) ने व्यक्त किए।
उन्होंने अपने मार्मिक उद्बोधन में पूज्य श्री देवर्धि साहेब ने कहा कि हम किसी धर्मस्थल पर जाकर अपने को धर्मात्मा समझते हैं, यह भूल है। धर्मात्मा 4 गुणों के अनुयायी होता है। धर्मात्मा आत्मवादी, लोकवादी,कर्मवादी, और क्रियावादी होता है। जो आत्मवादी होता है वह सोचता है, मैं शरीर नहीं हूँ-शरीरमय हूँ। कर्मवादी आठ कर्मों का चिंतन रखता है। आत्मवादी कहीं ना कहीं शरीर की उपेक्षा खोज लेता है। पाप के उदय पर दुःख सहन करना लाचारी है। जो पूर्व संचित पापों के कारण मिल रहे दुःख को मर्जी से सहन करता है, उनका जबरदस्त कर्म निर्जरा होती है। पापोदय की दो निशानी है। पहला पीड़ा महसूस करना और दूसरा कषाय महसूस करना। जब पीड़ा महसूस हो तो खुद को सूचना दो। पीड़ा का उदय आने पर पीड़ा मिटती नहीं। इनके कारणों को तलाशना पडता है!रोग का सही उपचार उसके लक्षण को मिटाकर किया जाता है। पीड़ा का उदय समझ में आता है। इसे दूर करने विशेष समाधि के लिए कोशिश करना चाहिए। कषाय का उदय समझ में नहीं आता है। हम क्रोध करते हैं, अहंकार रखते हैं, द्वेष रखते हैं, इसको देखो। खुद के कषाय की उदय को देखने से, महसूस करने से, कषाय कम होने लगता है। कर्मोदय के अनुसार ज़िन्दगी चला रहे हैं। सब दूसरों की जिंदगी को देखते हैं, खुद की ओर देखने का प्रयत्न नहीं करते।आपको बार बार क्रोध आता है, एक प्रयोग करना । जब आप गुस्से में नहीं हो तब खुद को बारबार सूचना देते रहो कि – मुझे गुस्सा नहीं करना चाहिए ।खुद को सूचना देने से परिवर्तन आता है। आपको जब गुस्सा आता है तब आप खुद को सूचना देने के काबिल नहीं होते हैं . तब आप आवेश में होते हो। एक बार आवेश आ गया फिर उसे रोकना मुश्किल हो जाता है। आप आईने में जब खुद का चहेरा देखें तब खुद से बात करते हुए बोले कि तुझे गुस्सा नहीं करना चाहिए। थोड़ा अजीब लगेगा लेकिन यह प्रयोग परिणाम दायी है । आप ने जो सूचना खुद को बारबार दी है वह संस्कार बनकर अंदर जमा हो जाती है। आखिर कार वही बात अंदर की आवाज़ बन जाती है। बाद में यह होगा कि आप जब गुस्सा आ रहा होगा तो यह आवाज़ अंदर से आप को पुकार देगी कि-रुक जा, तुझे गुस्सा नहीं करना है। आप बाहर से सम्यक् सूचना अंदर भेजो। फिर आप को अपनी अंतरात्मा ही गुस्सा करने से रोकने लगेगी।