नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट ने दहेज की कुप्रथा को समाज का गंभीर अभिशाप करार देकर कहा कि यह कानूनी प्रतिबंध के बावजूद उपहार और सामाजिक अपेक्षाओं के रूप में छिपकर फल-फूल रही है, जिससे महिलाओं के साथ उत्पीड़न, क्रूरता और मौतें जुड़ी हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की अपील पर सुनवाई करते हुए, इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2003 के उस फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें दहेज मौत के एक मामले में आरोपी पति अजमल बेग और उसकी मां जमीला बेग को बरी किया गया था। यह मामला 20 वर्षीय नसरीन की जलकर हुई मौत से जुड़ा था, जिनकी शादी के एक साल बाद मृत्यु हो गई थी। ट्रायल कोर्ट ने ससुराल वालों की कलर टीवी, बाइक और 15,000 नकद की मांग को साबित माना था। सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की सजा को बहाल कर दिया, जिसमें दोनों आरोपियों को आईपीसी की धारा 304बी (दहेज मौत), 498ए (क्रूरता) और दहेज निषेध अधिनियम की धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की उस दलील को खारिज कर दिया कि गरीबी के कारण दहेज की मांग अविश्वसनीय है, इस तर्कसंगत नहीं बताया।
वहीं मामले में दोषी पति अजमल बेग को चार सप्ताह के अंदर आत्मसमर्पण कर ट्रायल कोर्ट की सजा भुगतने का निर्देश दिया गया। 94 वर्षीय मां जमीला बेग को मानवीय आधार पर जेल नहीं भेजने का फैसला किया गया, क्योंकि उनकी उम्र को देखते हुए कारावास का कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता।