गैंगस्टर रोल में राजकुमार राव का जलवा, लेकिन स्क्रिप्ट ने किया थोड़ा निराश

गैंगस्टर रोल में राजकुमार राव का जलवा, लेकिन स्क्रिप्ट ने किया थोड़ा निराश

प्रयागराज की गलियों से निकली एक चिंगारी जब आग बनती है, तो वो सिर्फ रास्ते नहीं जलाती, कई जिंदगियां झुलसा देती है। ‘मालिक’ ऐसी ही एक चिंगारी की कहानी है, जो न तो पूरी तरह अपराध की तरफ है, न ही सिस्टम से लड़ने वाली कोई महान आत्मा। यह कहानी है उस गुस्से, उस लाचारी की, जो धीरे-धीरे एक आम लड़के को ‘मालिक’ बना देती है।

राजकुमार राव के कंधों पर पूरी फिल्म

फिल्म का सेंट्रल किरदार है दीपक, जिसे निभाया है राजकुमार राव ने। राजकुमार की परफॉर्मेंस फिल्म का सबसे ताक़तवर पक्ष है। उन्होंने अपने किरदार में जो टूटा हुआ आत्म-सम्मान, अंदर ही अंदर उबलता गुस्सा और धीरे-धीरे बढ़ती सत्ता की भूख दिखाई है, वो वाकई असर छोड़ती है। खास बात यह है कि एक ऐसा किरदार है जो हालात से मालिक बना है और शायद यही इसकी सबसे बड़ी सच्चाई है। राजकुमार राव के करियर की यह उन फिल्मों में से एक है, जो उन्हें पूरी स्क्रीन स्पेस और स्क्रिप्ट देती है। उन्होंने पहले भी ‘शाहिद’, ‘सिटीलाइट्स’ और ‘ओमेर्टा’ जैसी फिल्मों में गंभीर किरदार निभाए हैं, लेकिन ‘मालिक’ में कैमरा हर वक्त उन्हीं के चेहरे पर टिका रहता है। वह हर फ्रेम को ईमानदारी से निभाते हैं।

अधूरी थी जो कहानी, ‘मालिक’ ने पूरी की?

गौर करने वाली बात यह भी है कि राजकुमार ने पहले ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी के साथ एक मजबूत रोल करने की कोशिश की थी, लेकिन बाद में उनका किरदार छोटा कर दिया गया था। शायद ‘मालिक’ उस अधूरे सपने की एक पूरी तस्वीर है।

शुरुआत उम्मीद से भरी, पर फिर चूक

फिल्म की शुरुआत बहुत वादा करती है – एक डार्क, थ्रिलर की उम्मीद जगती है। इलाहाबाद की असली गलियों में फिल्माया गया हर सीन रॉ और रियल लगता है। कैमरा वर्क, लाइटिंग और प्रोडक्शन डिजाइन उस राजनीतिक-गुंडागर्दी के फिल्म का माहौल बहुत अच्छे तरीके से बनाया गया है। लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, फिल्म खुद अपनी गंभीरता से घबराने लगती है।

दूसरे हाफ में फिल्म खुद से डरने लगती है

दूसरे हाफ में फिल्म ‘थ्रिल’ की जगह ‘ड्रामा’ और ‘मसाले’ को पकड़ने लगती है। ऐसा लगता है जैसे मेकर्स को डर लग रहा हो कि क्या ऑडियंस एक शांत, गंभीर फिल्म को अपनाएंगे?

बड़ी सपोर्टिंग कास्ट, लेकिन सिर्फ एक नाम याद रह जाता है

फिल्म में बाकी कलाकारों का काम ठीक-ठाक है, लेकिन कोई बहुत खास असर नहीं छोड़ता। मनुषी छिल्लर बहुत कम समय के लिए पर्दे पर आती हैं और उनके चेहरे के भाव लगभग हर सीन में एक जैसे लगते हैं। राजकुमार राव के साथ उनकी जोड़ी भी खास नहीं लगती। प्रोसेनजीत चटर्जी और सौरभ शुक्ला जैसे अच्छे कलाकार फिल्म में हैं, लेकिन उनके किरदारों में कुछ नया नहीं है। सौरभ शुक्ला का रोल तो वैसा ही लगता है जैसा हमने उन्हें पहले भी करते देखा है। लेकिन अंशुमान पुष्कर इस भीड़ में अलग नज़र आते हैं। उन्होंने राजकुमार राव के साथ अच्छे सीन किए हैं, खासकर सेकंड हाफ में उनका अभिनय मजबूत लगता है। उन्होंने अपने किरदार को ईमानदारी से निभाया है और अच्छा प्रभाव छोड़ा है।

हुमा कुरैशी का आइटम नंबर

हुमा कुरैशी का एक आइटम नंबर फिल्म में है, जो सिर्फ कुछ मिनट की झलक भर है। ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग’ में जो राजकुमार और हुमा के बीच अच्छा तालमेल दिखा था, यहां वो बिल्कुल नहीं दिखता.. बस गाना आता है और खत्म हो जाता है।

डायरेक्शन ईमानदार, लेकिन स्क्रिप्ट में नयापन नहीं

पुलकित का निर्देशन यह दिखाता है कि उन्होंने फिल्म का माहौल, टोन और किरदारों की गंभीरता को अच्छी तरह समझा है। उन्होंने कैमरा, रंग और लोकेशन के ज़रिए इलाहाबाद की सच्चाई और किरदारों के भीतर के टकराव को अच्छे से पकड़ा है।

लेकिन जहां बात स्क्रिप्ट यानी कहानी की आती है, वहां फिल्म कमजोर लगती है। राजनीति की चालें, पुलिस की मिलीभगत और एक आम इंसान का धीरे-धीरे गुंडों की दुनिया में शामिल होना, ये सब बातें पहले भी कई फिल्मों में देखी जा चुकी हैं। फिल्म में ऐसा कुछ नया नहीं लगता जो चौंकाए, पकड़कर रखे या कहानी को यादगार बना दे। यही वजह है कि भले ही निर्देशन ठीक हो, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से ‘मालिक’ एक बहुत खास या अलग फिल्म बनने से चूक जाती है। आज की ऑडियंस के पास ओटीटी का विकल्प है। थिएटर तक खींच लाने वाली फिल्म को कुछ बड़ा, कुछ नया और कुछ असाधारण पेश करना होता है। ‘मालिक’ उस पैमाने पर थोड़ी पीछे रह जाती है।

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