-नवकार भवन प्रवचन श्रृंखला 19वां दिवस
दक्षिणापथ, दुर्ग। ऋषभ नगर स्थित नवकार भवन में शांत क्रांति संघ के तत्वाधान में आयोजित चातुर्मास प्रवचन श्रृंखला के 19वें दिन “दान की महिमा” को और अधिक सूक्षमता से व्याख्यातित करते हुए परम विदुषी महातपस्विनी व तप की प्रतिमूर्ति साध्वी मसा प्रभावती श्रीजी ने फरमाया कि समाज में दो तरह के लोग होते हैं- पहले वो जो खा कर खुश होते हैं और दूसरे वो जो खिला कर खुश होते हैं। मसा जी ने फरमाया कि जो भूखे को अथवा जरूरत मंदो को खिला कर खुश होते हैं वे अपने इस शुभकर्म से पुण्य का संचय करते हैं। इसके विपरीत जो स्वयं खा कर खुश हो लेते हैं वे कुछ भी हासिल नहीं कर पाते। दान की महिमा बड़ी महान है। गरीबों को अथवा साधु-संतों को दिया हुआ दान सांसारिक मनुष्य को मोक्ष के द्वार तक ले जाता है। दान के दो रूप बताते हुए मसा ने फरमाया कि दान भूषण होता है तो दूषण भी होता है। पवित्र मन, आनंद व प्रसन्नभाव से परमार्थ की मंशा से किया हुआ दान भूषण बन जाता है वही दान देने के पीछे स्वार्थ की मंशा हो, अहंकार का भाव हो अथवा बड़े होने का दम्भ हो तो ये दूषण की श्रेणी में आता है। दान दाता को कभी भी दान दें का अहंकार नहीं होना चाहिए और ना ही किसी पर उपकार करने का भाव होना चाहिए। याचक को छोटा समझकर उसका तिरस्कार भी नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दूषित भावों के साथ दिया हुआ दान कभी पुण्य संचय में सहायक नहीं होता इस के विपरीत संचित पुण्य का क्षय हो जाता है। साध्वी श्रीजी ने कहा कि यथासंभव याचक को खाली हाथ कभी नही लौटाना चाहिए लेकिन कभी दान देने की स्थिति ना रहे तो क्षमा मांगते हुए सम्मानजनक ढंग से पश्चाताप के भाव के साथ प्रेम पूर्वक मना कर देना चाहिए। ध्यान रखें कभी किसी का दिल ना दुखे। दान देने में कभी बेरुखी व अरुचि प्रदर्शित नहीं होना चाहिए बल्कि इतनी प्रसन्नता का भाव अपने हृदय में उत्पन्न हो कि शरीर रोमांचित हो उठे और आंसू निकल पड़े। द्वार पर आए याचक को देख कर कभी यह ना सोचे कि भीख मांगने आया है बल्कि यह सोचे कि वह कुछ सीख देने आया है। यह ना सोचे कि भीख मांगने आया है बल्कि यह सोचे कि वह कुछ सीख देने आया है।
साधु-संतों को दान देने के निमित्त कुछ बातों का विशेष ध्यान रखने की सीख देते हुए मसा जी ने कहा साधु- संतो के लिए आहार, पानी, धोवन पानी (विशेष विधि से तैयार किया हुआ पानी) आसन, पीढ़ा, वस्त्र, दवाई आदि की व्यवस्था प्रत्येक श्रावक को कर के रखनी चाहिए ताकि सम अथवा विषम किसी भी परिस्थिति में साधु संत मिल जाये या पधार जाएं तो उनकी यथायोग्य सेवा हो सके। ऐसी सेवा कर श्रावक जन पुण्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं। साधु संत सेवा पा कर जो आशीर्वाद देते हैं उसका फल इस लोक से उस लोक तक जाता है। अतः ऐसी स्थितियों के लिए सजग व सतर्क रहना चाहिए।साध्वी मसा ने आगे फरमाया कि दान व सेवा से पुण्य अर्जित करे या ना करें यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। इसका निर्णय स्वविवेक से लेना चाहिए। अपने प्रारंभिक प्रवचन में साध्वी मसा अभिलाषा श्रीजी ने फरमाया कि समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो नाम के लिए दान करते हैं। दान के एवज में वे प्रतिष्ठा, यश व सम्मान पाने की इच्छा रखते हैं। इस तरह सशर्त किया हुआ दान उतना पुण्यफलदायी नहीं होता। दान निः स्वार्थ व परमार्थ भाव से प्रदान करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को श्रम व कर्म करने का आह्वान करते हुए साध्वी मसा ने कहा कि तीन तरह के लोग होते हैं, पहला- काम प्रेमी, जो सिर्फ काम करते हैं, आगे पीछे का कुछ नही सोचते। दूसरे होते हैं नाम प्रेमी, जो काम के बदले में नाम की चाहत रखते हैं और तीसरे होते हैं आराम प्रेमी , इनके जीवन में सिर्फ खाना, सोना और आराम करना यही प्राथमिकता होती है। आज समाज में ज्यादातर लोग आराम प्रेमी व सुविधा भोगी हो गए हैं। आपने कहा कि जीवन में साधना भी बेहद जरूरी है जो जीव को परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग बताता है। जीवन में धर्म-ध्यान होना भी जरूरी है तभी मनुष्य जीवन की सार्थकता है।